बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास
प्रश्न- ऋत की अवधारणा का विस्तृत वर्णन कीजिए।
अथवा
ऋत की अवधारणा के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-
ऋत की अवधारणा वैदिक धर्म की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इसमें विशाल मानवता के कर्त्तव्यों एवं अनुशासन का गम्भीरतापूर्वक विवेचन किया गया है। वेदों में देवताओं के वर्णन में 'ऋतस्य गोप्ता' तथा ऋतायुः (ऋत का अभ्यास करने वाला) शब्दों का बार-बार प्रयोग हुआ है। ऋत शब्द प्राग्भारतीय मूल का यह शब्द प्रारम्भ में 'प्रकृति की एकरूपता' अथवा 'घटनाओं के व्यवस्थित क्रम के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार यह शब्द वैदिक मन्त्रों में 'विश्व व्यवस्था' का अर्थ देता है। इससे तात्पर्य सब प्रकार के नियमों से है। इस विश्व में प्रत्येक पदार्थ में जो व्यवस्था पायी जाती है वह ऋत के कारण है। यह न्याय के सर्वव्यापी भाव की भी याद दिलाता है। यह प्लेटो द्वारा उद्धृत व्यापक नियम है। यह दृश्यमान जगत उसी ऋत की छाया मात्र है जो सब प्रकार की उथल-पुथल एवं परिवर्तन की विक्रियाओं में अपरिवर्तित रहती है। व्यापक नियम विशिष्ट पदार्थों से पूर्व विद्यमान रहता है। इसीलिए वैदिक ऋषियों का विचार है कि प्रत्येक घटना के आविर्भाव के पूर्व यह विद्यमान रहता है। संसार के परिवर्तनशील क्रम ऋत की भी भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार ऋत सबका जनक है। मरुद्गण ऋत के ही दूरस्थान से निकलते हैं। विष्णु ऋत की अविकसित अवस्था का नाम है। द्युलोक और पृथ्वी ऋत के ही कारण द्युलोक एवं पृथ्वी कहलाते हैं।
'ऋत' विश्वव्यवस्था के अतिरिक्त नैतिक व्यवस्था के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। यह सदाचार एवं साधुता का भी नियम है। भौतिक जगत का यह नियम सदाचार जगत् में धर्म कहलाता है। देवता भी इसका अतिक्रमण नहीं करते। यह ऋत की अवधारणा में भौतिकवाद से अध्यात्मवाद के विकास का द्योतक है। वेदों में ऋत का मौलिक तात्पर्य है, 'संसार, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रगण, प्रातःकाल, सायंकाल, दिन एवं रात की गति का नियमित मार्ग।'। यह कालान्तर में सदाचार के नियम का साध्वाचार के नियम का द्योतक हो गया, जिसका पालन करने के लिए देवता भी बाध्य हैं। सूर्योदय ऋत के मार्ग का अनुसरण करता है। समस्त विश्व या ब्रह्माण्ड ऋत पर आश्रित है और इसी के अन्दर रहकर गति करता है। ऋत के विचार ने देवताओं के स्वरूप में भी परिवर्तन कर दिया। अब संसार अस्त-व्यस्तता एवं उद्देश्यहीन आकस्मिक अवयवों से पूर्ण न होकर एक समता के क्रम में सप्रयोजन कार्य करता हुआ प्रतीत होने लगा।
ऋग्वेद में वर्णित - ऋत वह नियम है जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है, एवं सभी मनुष्य एवं देवता उसका पालन करते हैं। ऋत जीवों के सम्मुख सदाचार का भी मापदण्ड प्रस्तुत करता है। यह वस्तुओं का सारतत्त्व है, उनकी यथार्थता है। सत्पुरुष लोग ऋत के मार्ग का अनुसरण करते हैं। ऋत के मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्तियों के जीवन व्यवहार को 'व्रतानि कहा जाता है। वेदों में स्थिरता एवं संगति को धार्मिक जीवन का लक्ष्य बताया गया है। जब वेदों में कर्मकाण्ड का महत्त्व बढ़ गया है तब ऋत यज्ञ अथवा यज्ञात्मक अनुष्ठान का पर्यायवाची हो गया।
वेदों में ऋत की अवधारणा के साथ वरुण देवता का नाम आता है। वरुण को ऋत का रक्षक कहा जाता है। वह न केवल विश्व व्यवस्था को बनाए रखता है, अपितु नैतिक व्यवस्था की भी रक्षा करता है। वह आकाश के तारामण्डित विस्तृत क्षेत्र को आच्छादित करता है। वेदों में वरुण के व्यक्तित्व को धीरे-धीरे परिवर्तित करके आदर्श रूप दे दिया गया। वह वेदों का अत्यन्त सदाचारी देवता बन गया। वह समस्त विश्व का निरीक्षण करता है, पापियों को दण्ड देता है। जो उससे क्षमायाचना करता है, वह उनके पापों को क्षमा कर देता है। सूर्य उसके चक्षु हैं, आकाश उसके वस्त्र हैं और तूफान उसका निःश्वास है। नदियाँ उसी की आज्ञा से बहती है, सूर्य चमकता है, नक्षत्र और चन्द्रमा उसी के भय से अपनी-अपनी परिधि में स्थिर रहते हैं। वही भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था को धारणा करता है। वह चंचल चित्त न होकर धृतव्रत है। वह जगत् के सदाचार सम्बन्धी नियमों के जिनको उसने स्वयं बनाया है, अधीन है। ऋग्वेद में वरुण के साथ मित्र देवता का भी उल्लेख आता है। दोनों संयुक्त रूप से ऋत के रक्षक हैं और पाप को क्षमा करने वाले हैं।
कालान्तर में वैदिक देवमण्डल में वरुण का स्थान इन्द्र ने ले लिया। इन्द्र से यह प्रार्थना की गई कि 'हे इन्द्र! हमें ऋत के मार्ग का निर्देशन करो जो सभी बुराइयों से ऊपर यथार्थ मार्ग हैं।' पुनः कुछ समय बाद प्रजापति, जो ब्राह्मण युग का प्रधान देवता बन गया, सृष्टि का स्वामी और ऋत का अधिपति माना गया। प्रजापति का यह महत्त्व यह प्रतिपादितं करता है कि ऋग्वैदिक युग के साथ ब्राह्मण युग में भी देवताओं पर विश्व व्यवस्था के साथ नैतिक व्यवस्था को भी बनाए रखने की जिम्मेदारी बनी रही।
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- प्रश्न- वेदों में संध्या एवं ऊषा के विषय में बताइये।
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- प्रश्न- आर्य परम्पराओं एवं आर्यों के स्थानान्तरण को समझाइये।
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- प्रश्न- 'वेदांग' से आप क्या समझते हैं? इसके महत्व की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- मिस्र का समाज कितने भागों में विभक्त था? स्पष्ट कीजिए।
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- प्रश्न- चीन की सभ्यता के विषय में आप क्या जानते हैं? इस सभ्यता के इतिहास के प्रमुख साधनों का उल्लेख करते हुए प्रमुख राजवंशों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन चीन की सामाजिक व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- चीनी सभ्यता के भौगोलिक विस्तार का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- चीन के फाचिया सम्प्रदाय के विषय में बताइये।
- प्रश्न- चिन राजवंश की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।